मैं जितने लोगों को जानता हूँ
उनमें से बहुत कम लोगों से होती है मिलने की इच्छा
बहुत कम लोगों से होता है बतियाने का मन
बहुत कम लोगों के लिए उठता है आदर-भाव
बहुत कम लोग हैं ऐसे
जिनसे कतरा कर निकल जाने की इच्छा नहीं होती
काम-धन्धे, खाने-पीने, बीवी-बच्चों के सिवा
बाकी चीजों के लिए
बन्द हैं लोगों के दरवाजे
बहुत कम लोगों के पास है थोड़ा-सा समय
तुम्हारे साथ होने के लिए
शायद ही कोई तैयार होता है
तुम्हारे साथ कुछ खोने के लिए
चाहे जितना बढ़ जाय तुम्हारे परिचय का संसार
तुम पाओगे बहुत थोड़े-से लोग हैं ऐसे
स्वाधीन है जिनकी बुद्धि
जहर नहीं भरा किसी किस्म का जिनके दिमाग में
किसी चकाचौंध से अन्धी नहीं हुई जिनकी दृष्टि
जो शामिल नहीं हुए किसी भागमभाग में
बहुत थोड़े-से लोग हैं ऐसे
जो खोजते रहते हैं जीवन का सत्त्व
असफलताएं कर नहीं पातीं जिनका महत्त्व
जो जानना चाहते हैं हर बात का मर्म
जो कहीं भी हों चुपचाप निभाते हैं अपना धर्म
इने-गिने लोग हैं ऐसे
जैसे एक छोटा-सा टापू है
जनसंख्या के इस गरजते महासागर में
और इन बहुत थोड़े-से लोगों के बारे में भी
मिलती हैं शर्मनाक खबरें जो तोड़ती हैं तुम्हें भीतर से
कोई कहता है
वह जिन्दगी में उठने के लिए गिर रहा है
कोई कहता है
वह मुख्यधारा से कट गया है
और फिर चला जाता है बहकती भीड़ की मझधार में
कोई कहता है वह काफी पिछड़ गया है
और फिर भागने लगता है पहले से भागते लोगों से ज्यादा तेज
उसी दाँव-पेंच की घुड़-दौड़ में
कोई कहता है वह और सामाजिक होना चाहता है
और दूसरे दिन वह सबसे ज्यादा बाजारू हो जाता है
कोई कहता है बड़ी मुश्किल है
सरल होने में
इस तरह इस दुनिया के सबसे विरल लोग
इस दुनिया को बनाने में
कम करते जाते हैं अपना योग
और भी दुर्लभ हो जाते हैं
दुनिया के दुर्लभ लोग
और कभी-कभी
खुद के भी काँपने लगते हैं पैर
मनुष्यता के मोर्चे पर
अकेले होते हुए
सबसे पीड़ाजनक यही है
इन विरल लोगों का
और विरल होते जाना
एक छोटा-सा टापू है मेरा सुख
जो घिर रहा है हर ओर
उफनती हुई बाढ़ से
जिस समय काँप रही है यह पृथ्वी
मनुष्यो की संख्या के भार से
गायब हो रहे हैं
मनुष्यता के मोर्चे पर लड़ते हुए लोग ।
– राजेन्द्र राजन .
बेहतरीन कविता! राजेंन्द्र राजन जी को हमारा शुक्रिया कहें इस कविता को लिखने के लिये!
सचमुच बेहतरीन कविता! सत्य-दर्शन.
राजेंन्द्र राजन जी को शत शत नमन!!!
such ko bahut he sahag dhang se kahne par aap ko meri taraf se dhanyawad.
ishkare hum aapne mission me safal hon.
सुन्दर कविता है। सोचने को बाध्य करते विचार हैं। किन्तु क्या हम अन्य लोगों को समझ पाते हैं? या समझ पाते हैं कि क्यों वह वे हैं जो वे हैं। सच तो यह है हम स्वयं को भी नहीं समझ पाते।
वैसे आज नेट विरल लोगों को वरल लोगों से मिलाने में सहायता कर सकता है।
अफ़लातून जी ने आपकी यह कविता परिचर्चा में दी थी और मैंने कुछ यह कहा था।
सही तो यही होगा कि
ऐसे लोगों को स्वयं का
एक छोटा सा टापू मिल जाए।
जहाँ सब विरले लोग ही रहते हों
जहाँ लोग प्रेम करते हो
प्रेम, पर प्रेम का ढोंग
या व्यापार नहीं।
जहाँ किसी को नीचे गिरा कर
स्वयं को ऊँचा
दिखाने की ना चाह हो।
जहाँ आम को आम और
नीम को नीम कहा जा सकता हो
जहाँ जबरदस्ती की मुसकान
चिपका कर ना लोग रहते हों।
जहाँ दिल दुखाना या
नीचा दिखाना ही
ना खेल जीवन का हो।
जहाँ जीयो और जीने दो
जीवन दर्शन हो।
हाँ मुझे बाढ़ से घिरे
उस टापू की चाहत है।
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घुघूती बासूती
अदभुत. बेहतरीन कविता
चाहे जितना बढ़ जाय तुम्हारे परिचय का संसार
तुम पाओगे बहुत थोड़े-से लोग हैं ऐसे
स्वाधीन है जिनकी बुद्धि
जहर नहीं भरा किसी किस्म का जिनके दिमाग में
किसी चकाचौंध से अन्धी नहीं हुई जिनकी दृष्टि
जो शामिल नहीं हुए किसी भागमभाग में
बहुत थोड़े-से लोग हैं ऐसे
आपका शुक्रिया जो इतनी अच्छी कविता से हमे रुबरु कराया. राजेंद्र राजन जी को हमारा शुक्रिया जरुर कहे
इसे सिर्फ़ प्रतिक्रिया न मानें.
हमारे समय और समाज में जो नया मध्यवर्ग वैश्विक पूंजी ने और उसके सांस्क्रितिक एजेन्डे ने पैदा किया है (कवि और बुद्धिजीवी भी उसी में सम्मिलित हैं) उसकी निपट वैयक्तिक स्वार्थ लिप्सा और कागज या वेब मे महान बनने के छ्द्म को यह कविता बिल्कुल सहजता से विखंडित करती है.
तथाकथित सामाजिक प्रतिबद्धताओं की कविता या रचना का पेशा करने वाले ‘महानों’ को अपना विषय बनाती यह कविता अपने प्रभाव मे अद्भुत है.
बधाई….(इसे सचमुच की बधाई मानें!)
दुनु रॉय ई-मेल से लिखते हैं :
अफ़लातून,
कविता बहुत अच्छी है । लेकिन मध्यम वर्ग की झलक है । मानवता का आदर करने वाले असंख्य लोग मुझे रोज मिलते हैं – लेकिन ‘गरीबों’ की उस भीड़ में , और उनमें से ज्यादातर महिलाएं ही होती हैं । ऐसा क्यों ?
-दुनु
@ दुनु भाई, मध्यम वर्ग की झलक ही दिखाई गई है । और उनकी भीड़ पर ही चोट की गयी है ।
-अफ़लातून
आपका आभार जो इस सच्चे गीत को मुझ तक पहुँचाया —
अफलातून जी
आभार यह कविता पढवाने के लिए ।
एक प्रभावी कविता !
कविता तो खैर गजब की सादगी से भेड़चाल को नापती है। पहले भी पढ़ी थी। अरे राजन जी फोटऊवा भी लगाय देता अउर ठीक रहत बहुत दिन भयल ओनके देखले।
One of the best poems I have read!!!!! Thanks Aflatoon!
अपनी सीमाओं के भीतर रहकर भी गर आदमी अपना काम ईमानदारी से करे तो शायद वही बड़ी बात है .इसलिए आज की दुनिया में “नोर्मल “होना ही असाधारण होना है ….
[…] मनुष्यता के मोर्चे पर : राजेन्द्र राजन […]
[…] मनुष्यता के मोर्चे पर : राजेन्द्र राजन […]
[…] मनुष्यता के मोर्चे पर : राजेन्द्र राजन […]
वाह! गम्भीर चिन्ता सरल शब्दों में…हम तलाशते हैं ऐसे आदमी को जिसके पास फुर्सत हो हमारे लिए, हमें तो नहीं मिलता…
राजेन्द्र की यह कविता विलक्षण है।
राजेन्द्र की कविताएं अपने कटाक्ष से बींधती हैं। बहुत पहले दोआबा में पढी उनकी कविताऍं अभी भी मन में तरोताजा हैं। हिंदी के युवा कवियों के कोलाहल से दूर वे जो रच रहे हैं उसकी भनक शायद उनके सिवा कम लोगों को ही होती है। उन्हें चाहिए कि अब बहत हो गया, वे एक संग्रह लाऍं जो काम उन्हांने गत एक दशक से स्थगित कर रखा हे।
पुराने बनारसी मित्र हैं, और क्या कहूँ। उनका यह लिंक शेयर करने वाले को साधुवाद। और राजेन्द्र राजन दुनिया में चाहे जितने हों, हिंदी में तो सात आठ हैं और सभी जाने माने हैं, पर यह जो सामयिक वार्ता वाले और अब जाने माने हिंदी अखबार से जुड़े राजेन्द्र राजन हैं, विलक्षण हैं। विलक्षण है उनकी सादगी। उनका विनय। उनका सौजन्य।
वाह….इतनी बढ़िया और गंभीर कविता के लिए…सोचने पर बाध्य करती हुई पंक्तियाँ..जिस समय काँप रही है यह पृथ्वी
मनुष्यो की संख्या के भार से
गायब हो रहे हैं
मनुष्यता के मोर्चे पर लड़ते हुए लोग ।…..राजेंद्र जी को नमन और अफ़लातूनजी आपका बहुत-बहुत आभार इसे हमलोगों तक पहुँचाने के लिए…
….कभी-कभी….खुद के भी काँपने लगते हैं पैर…..मनुष्यता के मोर्चे पर….अकेले होते हुए……अद्धभुत !
राजन जी धन्यवाद इस बेहतरीन कविता के लिए…… मैं समझता हूं कि ऐसी कविता सिर्फ आप और आप जैसे लोग ही लिख सकते हैं…. जो भीड़ से अलग हो वही भीड़ से अलग सोच सकता है…
Once a English poet wrote that ..” Feeling lonely in merchants world…”
शायद यही “बलात कैवल्य” मित्र राजेंद्र राजन के ह्रदय पर भी दस्तक दे रहा होगा..बहुत सुंदर कविता..सरल ..सहज अभिव्यक्ति …
यह एक बेहद सधी हुई सारवान आवाज़ है कविता की दुनिया में…ऐसी ही आवाज़ों से इधर की कविता में अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही मनुष्यता का पता मिलता है। आभार अफलातून जी।
मेरे विचार से हर कवि आध्यात्मिक होता है और यह कविता अन्य लोगों में भी इसी आध्यात्मिकता(आवश्यक नहीं की कवि की आध्यात्मिकता) की तलाश करती है, जो अत्यंत विरल है ।